Friday, November 21, 2008

वैश्विक आर्थिक मंदी, भारतीय उद्योग जगत और रोजगार

वैश्विक आर्थिक मंदी से विश्व भर की अर्थव्यवस्थाएं जूझ रही हैं. इस कारण एक ओर जहाँ उद्योग जगत में वैश्विक वित्तीय संकट का साया गहरा रहा है , वहीं दूसरी ओर विभिन्न उद्योगों में कम करने वाले पेशेवरों पर भी छटनी के काले बदल मंडरा रहे हैं । बड़ी -बड़ी कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों की छटनी करके अपने खर्चों में कमी करके आर्थिक मंदी से पार पाने की कोशिश में जुटी हैं ।

ऐसी विषम परिस्थितियों में, जबकि दुनिया भर की बड़ी कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों की लगातार छटनी कर रही हैं और हजारों विशेषज्ञों की नौकरियाँ इस मंदी की भेंट चढ़ चुकी हैं, भारतीय उद्योग जगत की अलग -अलग क्षेत्र की कई शीर्ष कम्पनियों ने अपने कर्मचारियों की छटनी करने से इंकार कर दिया है . इन कंपनियों में आईटी क्षेत्र की इन्फोसिस टेक्नोलोजी , ऑटो क्षेत्र की बजाज ऑटो , इंजीनियरिंग क्षेत्र की कम्पनी लार्सन एंड टुब्रो , निजी बीमा क्षेत्र की कम्पनी मेक्स न्यूयार्क लाइफ इंश्योरेंस और मैट लाइफ आदि नामी कम्पनियाँ शामिल हैं .भारतीय कारपोरेट जगत की इन चोटी की कंपनियों के इस कदम से विश्व उद्योग जगत को एक सकारात्मक संदेश जाता है . इस बारे में हाल ही में इन्फोसिस के सह -अध्यक्ष नंदन निलेकनी का इंडिया इकनॉमिक समिट में दिया गया बयान काफ़ी अहम् है . उनका कहना है कि हम अपने खर्चों को कम करने और उत्पादकता को बढ़ने के अन्य उपाय कर रहे हैं ।

जाहिर है, कम्पनी की उत्पादकता विशेषज्ञों और कर्मचारियों की छटनी करके तो नही बढाई जा सकती . जहाँ तक खर्चों का सवाल है, तो कम्पनियाँ अपने उत्पादों के प्रचार के लिए विज्ञापनों और शो-बाजी पर ही अंधाधुंध खर्चा करती हैं . कंपनियों को अपने उत्पादों पर आडम्बरों और शो-बाजी पर होने वाले अत्यधिक व्यय को रोकने या कम करने की पहल करनी होगी . ये शो-बाजी किसी उत्पाद को तात्कालिक लाभ तो दिला सकती है , लेकिन दीर्घकालिक लाभ तो अंततः उत्पाद की गुणवत्ता पर ही निर्भर है . और उत्पाद की गुणवत्ता को अच्छे विशेषज्ञ ही बनाए रख सकते है . इसके अलावा कम्पनियों के निदेशकों और आला आधिकारियों को मिलने वाला भरी भरकम वेतन भी जग जाहिर है . परिस्थितियों को देखते हुए इन आधिकारियों के बोनस और अन्य भत्तों के रूप में मिलने वाली मोटी रकम पर भी कुछ हद तक लगाम लगानी होगी ।

इस सब को देखते हुए भारत के विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों और पेशेवरों के साथ -साथ नई पीढी के स्नातकों को घबराने की आवश्यकता नही है । सम्भावनाएं बहुत हैं, लेकिन असल बात है उन पर खरा उतरने की . जो अपेक्षाओं और क्षमताओं की कसौटी पर खरे उतरते हैं, उनके लिए अवसरों की कोई कमी नही होती ।

Wednesday, November 19, 2008

भगवा वेश - रक्षक या भक्षक


भारत को हमेशा से ही भगवा वेशधारी साधू -संतों और ऋषि -मुनियों का देश माना जाता रहा है. सही भी है. पहले लोग सांसारिक मोहमाया को छोड़कर भगवा वेश धारण करते थे. हर ऐशोआराम छोड़कर घास -फूस की कुटिया बनाकर रहते थे. घनी बस्ती से दूर कहीं अपना आश्रम बनाकर अपने शिष्यों और अनुयायियों के साथ रहते थे. वहाँ वो अपने शिष्यों और अनुयायियों को धर्म और संस्कृति के प्रचार -प्रसार का उपदेश देते थे. उन्हें देश और समाज की उन्नति और खुशहाली का मार्ग दिखलाते थे. और ये शिष्य ही सारे देश में घूम - घूमकर धर्मं , संस्कृति और ज्ञान का प्रचार लोगों में करते थे. जिससे देश और समाज का उद्धार हो.

अभी तक भागवावेश को सम्मानित और पवित्र माना जाता रहा है, किंतु मालेगाँव की घटना के बाद जो कुछ भी सामने आया है, वो रोंगटे खड़े कर देने वाला है. आज के भगवाधारी साधू -संतों ने भगवा वेश का मतलब ही बदल दिया है. आज परिद्रश्य एकदम अलग है. आज के साधू -संत पूर्ण रूप से मोहमाया के जाल में फंसे हुए है. वे आलीशान महल जैसे आश्रमों , वातानुकूलित कारों , नौकर -चाकरों और अकूत धन -दौलत के मालिक है. ये धर्म के ठेकेदार अपने आश्रमों में आतंकवादियों को पालते हैं. आतंकवादियों को प्रशिक्षण देना , उन्हें हथियार चलाना सिखाना , निर्दोष लोगों की हत्या कराना , लूटपाट कराना ही इनका पुनीत कर्तव्य है. उफ़ ! कितना घिनौना चेहरा है इस सब का.

कैसी विडम्बना है! जिनको हम संत , पवित्रात्मा और धर्मं के रक्षक मानते हैं, वे ही देश को बरबाद करने पर तुले हैं. देश को तरक्की और खुशहाली के रस्ते पर ले जाने का दंभ भरने वाले शीर्ष नेता ही उनकी तरफदारी कर रहे हैं. उनके समर्थन में मोर्चे निकाल रहे हैं. एक तरफ़ तो ये नेता आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने की बात करते हैं और दूसरी ओर ये ही आतंकवादियों का बचाव भी कर रहे हैं.

ये सब इस देश की जनता अपनी आंखों से चुपचाप देख रही है. जब रक्षक ही भक्षक बन जायेंगे तो क्या होगा ? ये सब जनता कब समझेगी ?

Monday, November 10, 2008

महंगाई कहाँ कम हो रही है?

महंगाई कम हो रही है . महंगाई कम हो रही है . चारों ओर इसी बात की चर्चा हो रही है . हर चौराहे , हर नुक्कड़ पर लोग सिर्फ़ इसी बात की चर्चा में लिप्त हैं . सरकारी दफ्तरों में बाबू मुंह में पान दबाये धूप सेकते हुए गंभीरता से इसी चर्चा में स्वयं को व्यस्त दिखाते बेचारे आम आदमी को झिड़क रहे हैं . आला अफसर से लेकर एक चपरासी और सत्ताधारी शीर्ष नेता से लेकर एक अदने से छुटभैये तक सभी बड़े जोर-शोर से इसी को लेकर खुश हो रहे हैं कि महंगाई कम हो रही है .
मैं भी नुक्कड़ की उस भीड़ में खड़ा हो गया . मैंने एक नेता टाइप आदमी से पूछा ,”क्या सचमुच ही महंगाई कम हो रही है ?” उसने अजीब सी हिकारत भरी नजरों से मुझे देखा और प्रत्युत्तर में प्रश्न दागा ,”क्यों ? क्या आप अखबार नही पढ़ते ? महंगाई दर पहले से कम हो गई है .” मैंने पूछा ,”तो क्या अब गरीब आदमी आसानी से रोटी खरीद सकेगा ? क्या महंगाई इतनी कम हो गई है कि अब एक आम आदमी भी अपने बच्चों को अपने मनपसंद स्कूल में दाखिला दिला सकेगा ? क्या एक गरीब आदमी रोटी कमाने की चिंता किए बिना अपने बच्चों को स्कूल भेज सकेगा ? तभी किसी ने कहा ,”सीमेंट और सरिया सस्ता हो गया है .” मैंने पूछा ,”तो क्या अब झुग्गी-झोंपडी में रहने वाले अब पक्के और सीमेंटेड घर बना सकेंगे ? क्या अब अपने देश से मलिन बस्तियां समाप्त हो जायेंगी ?” किसी ने कहा ,”हवाई भाड़े में काफी कमी हो गई है .” मैंने पूछा ,”तो क्या सरकारी बसों में यात्रा करने से महरूम आम आदमी अब हवाई सफर करेगा ? क्या अब गरीब किसान और मजदूर अपने खेतों तक हवाई जहाज से जायेंगे ?”
लोग मेरी ओर घूर कर देखने लगे . मैं चुपचाप वहां से खिसक लिया . ये पता करने कि आख़िर महंगाई कहाँ कम हुई है . आपको पता चले तो कृपया मुझे भी बताना.

Sunday, November 9, 2008

ब्लॉग पर पहला दिन

ब्लॉग पर मेरा पहला दिन है. मैं यह ब्लॉग अपनी राष्ट्र भाषा हिन्दी को समर्पित करता हूँ. हमारा देश विभिन्न भाषाओँ, धर्मों, संस्कृतियों का संगम है. हमारा देश विभिन्नताओं में एकता की एकमात्र अनूठी मिसाल है जिसको सारी दुनिया मानती है. हिन्दी हमारे देश की राष्ट्रीय भाषा है. वैसे तो हिन्दी हमारी राष्ट्रीय भाषा है लेकिन हमारे देश में अधिकतर लोग हिन्दी भाषा अपनाने में हिचकिचाते हैं. हिन्दी में पढने, लिखने या बोलने में लोग शर्मिंदगी महसूस करते हैं. एक बार एक निर्धन औरत अपने बेटे से मिलने उसके पास शहर पहुँची. उसका बेटा अपने मित्रों के सामने अपने आप को बहुत अमीर जताता था. जब वह वहां पहुँची तो उसके बेटे ने अपने मित्रों से कहा की वह औरत उनके घर की नौकरानी है जिसे उसकी माँ ने उसका हालचाल पता करने के लिए भेजा है. हिन्दी की हालत भी आज उस माँ जैसी ही गरीब माँ जैसी है जिसे उसी के बेटे अपना कहने में शरमाते हैं. हिन्दी आज अपने ही देश में अपने ही लोगों के बीच बेगानी हो गई है.

कोई विदेशी व्यक्ति अथवा विदेशी प्रतिनिधि हमारे देश में आता है तो वह यहाँ आकर अपनी मातृभाषा ही बोलता है. किंतु हमारे देश के प्रतिनिधि विदेशों में जाकर हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा में ही बोलते हैं. ऐसा क्यों ? आज लोग अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में पढाना पसंद करते हैं जहाँ हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा को ज्यादा महत्व दिया जाता है. घरों में भी लोग अपने छोटे - छोटे बच्चों को अंग्रेजी बोलने के लिए ज्यादा प्रोत्साहित करते हैं. अंग्रेजी भाषा से हमारे संबोधन भी कितने बदल गए हैं. पिताजी को डैड, माँ को मॉम, चाचा को अंकल, चाची को आंटी.... कैसा अजीब लगता है. न वो अपनापन, न वो मिठास. लगता है किसी अपने से नही बल्कि किसी गैर से बतिया रहे हैं. आज जब कोई हाथ जोड़कर नमस्ते करता है तो कितना अच्छा लगता है. जब कोई छोटा बच्चा अपने से बड़े के पैर छूता है तो अनायास ही मन में एक अजीब सी खुशी की लहर दौड़ जाती है. उस वक्त मन को जो प्रसन्नता और सुकून मिलता है उसे शब्दों में बयान करना आसन नही है.

मैं अंग्रेजी का विरोध नही करता. अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी चाहिए . उन्हें अंग्रेजी भाषा भी सीखनी चाहिए. किंतु हमें हिन्दी भाषा को भी किसी अन्य भाषा से कमतर नही आंकना चाहिए. हिन्दी भाषा विश्व की प्राचीन और महानतम भाषाओँ में से एक है. अच्छी शिक्षा ही बच्चों के उज्जवल भविष्य की आधारशिला होती है. इसके साथ ही हमें अपने बच्चों को अपनी प्राचीन भारतीय संस्कृति से भी दूर नही करना चाहिए. हमारा कर्तव्य है कि हम अपने बच्चों को अपने देश के गौरव और नैतिक मूल्यों से भी परिचित कराएं जिससे हमारे देश का मान और गौरव बढे.

आपका

प्रदीप