Friday, April 3, 2009

लोकतंत्र के हित में

संजय दत्त को लोकसभा का चुनाव लड़ने से रोकने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने भले ही मुन्ना भाई, उनकी पार्टी और उनके प्रशंसकों को निराश किया हो, किंतु इस फैसले का सकारात्मक पक्ष यह है कि अब उन अनेक अपराधिक इतिहास वाले बाहुबलियों का मनोबल टूटेगा जो चुनाव लड़ने के लिए अपनी सजा का निलंबन कराने के लिए अदालत जाने वाले थे राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने की दिशा में इस अदालती पहल की सराहना की जानी चाहिए हालाँकि, यह इनमें दिया जा रहा है कि संजय दत्त को पेशेवर अपराधी की श्रेणी में नही रखा जा सकता मुंबई की टाडा अदालत और अब शीर्ष अदालत ने भी यह माना है मुमकिन है कि संजय दत्त निर्दोष हों हो सकता है कि मुंबई बम-कांड या उसे अंजाम देने वालों के साथ उनके वैसे रिश्ते ना हों किंतु, 1993 में हुए मुंबई बम-कांड जैसे राष्ट्र-विरोधी मामले में जाने-अनजाने उनकी संलिप्तता को अनदेखा नही किया जा सकता, जिसमें करीब 250 लोग मारे गए थे उस मामले में विशेष टाडा अदालत ने संजय दत्त को आर्म्स एक्ट के तहत 6 वर्ष की सजा मुक़र्रर की थी ऊपरी अदालत द्वारा जब तक इसका निपटारा नही हो जाता, संजय दत्त एक सजा-याफ्ता व्यक्ति हैं चूँकि भारतीय जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (3) के तहत दो साल या इससे अधिक की सजा पाने वाला व्यक्ति चुनाव नही लड़ सकता अतः शीर्ष अदालत का यह फ़ैसला न्याय-संगत ही है

सुप्रीम कोर्ट का संजय दत्त को चुनाव लड़ने की इजाजत ना देने का फ़ैसला इस नजरिये से भी स्वागत योग्य है कि देश भर में फैले केंद्रीय कारागार में ना जाने कितने ऐसे सजा-याफ्ता बंदी हैं या जमानत पर छूटे हुए पेशेवर हैं जो सामाजिक स्वीकृति और संसदीय विशेषाधिकारों को हासिल करने के लिए चुनाव लड़ने को तैयार बैठे हैं अगर संजय दत्त को अनुमति मिल जाती तो यह एक ग़लत परम्परा की शुरुआत होती, जिसकी सीढियाँ चढ़कर इनमें से कई संसद या विधान-सभाओं में पहुँचने का जुगाड़ ढूंढ़ ही लेते

हाल के कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति में अपराधियों का दखल लगातार बढ़ता ही जा रहा है यह लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए शुभ संकेत नही है राजनीति के अपराधीकरण के इस मुद्दे पर किसी भी दल ने ध्यान देने की जरुरत नही समझी इस पर राजनीतिक दलों से तो कोई उम्मीद नही की जा सकती ऐसे विकट समय में जबकि न्यायपालिका का यह कदम समयानुकूल एवं प्रशंसनीय है, बाकी काम मतदान के समय जनता को ही करना है


Saturday, March 28, 2009

माया महा ठगिनी...

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर अब तक लोकसभा चुनाव पर होने वाले सरकारी खर्च में बेतहाशा वृद्धि हुई हैसन1952 में हुए प्रथम लोकसभा के चुनाव में करीब दस करोड़ पैंतालिस लाख रूपये खर्च हुए थेजबकि 2004 में चुनाव में लगभग तेरह अरब रूपये खर्च हुए थेसेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के आंकडों के मुताबिक पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियाँ लगभग साढे तेतालीस अरब रूपये खर्च करेंगीइसके अलावा क्षेत्रीय पार्टियाँ भी करीब दस अरब रूपये खर्च करने वाली हैंइस चुनावी मौसम में अपने फायदे के लिए कई नेताओं ने डाक्यूमेंट्री-विज्ञापन फिल्में बनवाई हैंलालकृष्ण आडवाणी, मायावती, मुरली मनोहर जोशी, केसरीनाथ त्रिपाठी के अलावा और भी नेताओं ने अपने ऊपर फिल्में बनवाने के लिए विज्ञापन एजेंसियों और फिल्मकारों की सेवाएं ली हैंइन्हें बनवाने के लिए नेताओं ने कुछ लाख से लेकर करोड़ तक खर्च किए हैंकांग्रेस पार्टी ने चुनावी प्रचार के लिए अपना बजट लगभग 150 करोड़ रूपये निर्धारित किया हैवहीं भारतीय जनता पार्टी ने इस मद में लगभग 250 करोड़ रूपये खर्च करने की तैयारी कर ली हैसिटी ग्रुप ग्लोबल मार्केट की रिपोर्ट के अनुसार, इस चुनाव में विज्ञापनों पर कम से कम 800 करोड़ रूपये खर्च होंगेसेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज के मुताबिक, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव पर 8000 करोड़ रूपये खर्च हुएखास बात यह है कि जहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर 8000 करोड़ रूपये की रकम लगभग एक साल में खर्च की गई, वहीं भारतीय लोकसभा चुनाव पर करीब 10,000 करोड़ रूपये चंद महीनों में ही खर्च हो जायेंगेविज्ञापनों के अलावा मतदाताओं के बीच भी एक बड़ी रकम लुटाई जानी हैइसे उचित ठहराते हुए नेताओं का मानना है कि चर्चा, पर्चा और खर्चा तो चुनाव में होना ही चाहिएसोचने वाली बात तो यह है कि इतना पैसा आएगा कहाँ से!

ग्रह मंत्रालय के अफसरों के अनुसार फॉरेन कंट्रीब्युशन रेग्युलेशन एक्ट (FCRA) के तहत पिछले चुनाव में करीब 6 हजार 256 करोड़ रूपये विदेश से आए थे, जबकि ताजा आंकडों के मुताबिक अब तक 14 हजार 926 अरब रूपये FCRA की जानकारी में आए हैंभारत में अमेरिका के राजदूत रहे डेनियल पैट्रिक ने अपनी किताब में लिखा कि केरल और पश्चिम बंगाल में सत्ता समीकरण बदलने के लिए उन्होंने श्रीमती गाँधी को पैसे दिए थेकांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने अपनी डायरी में लिखा कि श्रीमती गाँधी सोवियत संघ से पैसा लिया करतीं थीं2007 में क्रिस्टोफर आंद्रे ने अपनी पुस्तक "मित्रोखिन आर्काइव-टु" में ऐसे ही 375 लोगों के नाम प्रकाशित किए जिनके नाम सोवियत संघ से पैसा आता थाउन्होंने पूर्व प्रतिरक्षा मंत्री कृष्ण मेनन का नाम भी लिया। "मितोखिन आर्काइव-टु" में और भी कई सनसनी-खेज खुलासे किए गएइसके अलावा सीआईए-मोसाद से आर्थिक मदद लेने के आरोप भाजपा पर भी लगेरेमण्ड बेकर की पुस्तक "कैपिट्लिस्म अकिलीज हील" में भी खुलासा किया गया है कि पश्चिम से 5 लाख करोड़ डॉलर गरीब देशों में षडयंत्र करने और मर्जी की सरकार बनवाने के लिए भेजे गए

बम-बन्दूक, दारू-शराब और दौलत के बिना चुनाव सम्भव क्यों नही है? क्या इस सब के बाद विदेशी ताकतें अपना हित साधने के लिए भारतीय राजनीति में घुसपैठ नही करेंगी? क्या इससे भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति प्रभावित नही होगी? इस सब को रोकना ही होगा, अन्यथा भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए एक गंभीर संकट खड़ा हो जाएगा

Sunday, March 22, 2009

रैगिंग, एक अभिशाप

हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले के मेडिकल कालेज के छात्र अमन की मौत से सारा देश सकते में है इससे संकेत मिलता है कि शिक्षण संस्थाओं में रैगिंग कितने गहरे तक पैठ बना चुकी है. कालेजों और विश्वविद्यालयों में रैगिंग का अत्यन्त भयावह रूप सामने रहा हैआमतौर पर वरिष्ठ लोगों की ओर से यह तर्क दिए जाते है कि छात्रों की आपस में अच्छी जन-पहचान के लिए यह एक परिचय-पार्टी के रूप में जरुरी हैइससे समरस शैक्षिक माहौल बनता हैयह तर्क इंग्लॅण्ड के इलीट कालेजों से आया है और वहीं से रैगिंग भी शुरू हुई हैइसके पीछे शासन करने और सताने की मानसिकता काम करती है, जिसके लिए लोकतान्त्रिक समाज में कोई जगह नही है इसीलिए यह वहां तो बंद हो गई, किंतु भारत में अभी भी चल रही हैजूनियर छात्र जब कालेज पहुँचते हैं तो पहले से ही उनपर काफी मानसिक दबाव रहता हैऐसे में यह परिचय पार्टी जूनियर-सीनियर के अन्तर को समाप्त कर उनमें बेहतर तालमेल बैठने में मददगार होती हैकिंतु धीरे-धीरे इसका स्वरूप विकृत होता चला गया और यह जघन्य कृत्यों की श्रेणी तक पहुँच गयानए छात्रों का अपमान, उत्पीडन और शोषण इसके अनिवार्य अंग बन गए हैं। पहले रैगिंग नए विद्यार्थियों के प्रवेश के कुछ दिनों तक ही चलती थी, किंतु अब यह तब तक चलती है जब तककि छात्र स्वयं सबसे ऊँची कक्षा में नही पहुँच जाता। रैगिंग की यह बीमारी हर साल तमाम छात्रों को अच्छे प्रोफेशनल कालेजों को छोड़ने पर विवश कर देती है और कई संवेदनशील छात्रों को मानसिक रूप से कुंठित और बीमार बना देती है। रैगिंग की कुंठा से बनी बीमारी न केवल व्यावसायिक कोर्स के आखरी साल तक बनी रहती है बल्कि वह आगे शिक्षक और प्राचार्य तक पैठी रहती है। सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देश एवं सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघव की सिफारिशों के बावजूद विभिन्न राज्यों में बने रैगिंग रोकने वाले कानून ठीक से लागू नही हो पा रहे हैं।

रैगिंग बढ़ने का एक कारण शिक्षण संस्थाओं में मूल्यों का ह्रास तथा कार्य संस्कृति की कमजोरी भी है। पिछले दो दशकों में व्यावसायिक संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी है। यह अच्छा कदम है किंतु इस बढोत्तरी से कुछ चिंताजनक प्रवृतियाँ भी उभरी हैं। एक तो शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है, दूसरा इनमें छात्र-शिक्षक के संबंधों में गर्माहट भी कम हुई है। अतः छात्रों को अपेक्षित मार्गदर्शन नही मिल पाता है। किशोरावस्था अत्यन्त संवेदनशील होती है। इस अवस्था में विद्यार्थी को मार्गदर्शन तथा दिशा-निर्देश की आवश्यकता होती है। इसीलिए शिक्षण-संस्थाओं में गाइडेंस कौन्सिलिंग की व्यवस्था का प्रावधान है किंतु अधिकांश संस्थाओं में या तो इन पदों पर नियुक्ति ही नही होती या फ़िर उन्हें कक्षाओं में केवल अरेंजमेंट के तौर परही भेजा जाता है। फलतः छात्रों को वह वातावरण नही मिल पता जो उनके अन्दर आत्मविश्वास पैदा करे तथा सही राह दिखाए। हॉस्टल वार्डेन की उपस्थिति तथा सजगता भी रैगिंग को विचारशील सांस्कृतिक कार्यक्रम में बदल सकती है।

रैगिंग प्रतिभा के घरेलू विकास में बड़ी बाधा बनकर उभर रही है। इसके पीछे जाति, धर्म और क्षेत्र की कुंठाएं भी काम करती हैं और यौन-कुंठाएं भी अपनी भूमिका अदा हैं। जाहिर है, शिक्षा के उदारीकरण के इस युग में रैगिंग भारतीय शैक्षिणिक संस्थाओं की छवि को दुनिया भर में बट्टा भी लगायेगी। रैगिंग के कारणों, स्वरूप तथा प्रवृति का मनोवैज्ञानिक अद्ध्ययन तथा समझ आवश्यक है। यह एक गंभीर समस्या है। उच्चतम न्यायालय के आदेशों तथा निर्देशों पर अमल तभी होगा जब प्राचार्य , अध्यापक और वार्डेन अपने कर्तव्यों का जिम्मेदारी से निर्वाह करें

कांगडा की इस त्रासदी के बाद रैगिंग में प्रताड़ना के और भी प्रकरण सामने आ सकते हैं। इससे पहले की स्थिति और बिगडे, त्वरित तथा दूरगामी उपाय करने होंगे।


Sunday, March 15, 2009

नो वोट और राइट टु रिकाल

भारत के लोकतंत्र को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रों में गिना जाता है। लेकिन आजादी से लेकर आज तक धीरे-धीरे यह लोकतंत्र से अपराधी-तंत्र में परिवर्तित होता जा रहा है। आज अकर्मण्य, बेईमान तथा भ्रष्ट जन-प्रतिनिधियों की प्रत्येक पार्टी में भरमार है। कोई भी पार्टी या दल ऐसा नही है जिसमें अपराधिक प्रवृति के लोग न हों। चौदहवीं लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो चुका है तथा पंद्रहवीं लोकसभा के लिए घमासान शुरू हो चुका है।पिछली लोकसभा का लेखा-जोखा देखें तो झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के 5 सांसदों में से 5 (100%), बसपा के 19 सांसदों में से 8 (42%), जद(यु) के 8 सांसदों में से 3 (38%), भाजपा के 138 सांसदों में से 29 (21%), कांग्रेस के 145 सांसदों में से 26 (18%) तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 43 सांसदों में से 7 (16%) सांसद दागी थे। नेशनल वाच द्वारा वर्ष 2004 के आम चुनाव को आधार बनाकर किये गए इस सर्वक्षण के अनुसार कुल निर्वाचित 539 सांसदों में से 125 यानि 23% सांसद दागी थे। पंद्रहवीं लोकसभा में किसी भी एक पार्टी को बहुमत मिलेगा, इसमें संदेह है। गठजोड़ की सरकार में जिसके पास ज्यादा सांसद होंगे वही किंगमेकर होगा। अतः इस बार भी अपराधिक प्रवृति ले लोग खुलकर मैदान में होंगे।

इस सब के लिए जनता-जनार्दन ही जिम्मेदार है, क्योंकि ऐसे दागियों को जनता ही चुनकर संसद में भेजती है। इसके लिए जनता भी अपने जिम्मेदारी से नही बच सकती है। ऐसा नही है कि जनता के पास इसका कोई विकल्प
नही है। राजनीति में अयोग्य लोगों को आने से रोकने के लिए निर्वाचन आयोग की नियमावली के नियम '49 ओ' में मतदाताओं को सभी प्रत्याशियों को नकारने का विकल्प दिया गया है। अगर मतदाता किसी भी प्रत्याशी को चुनाव की कसौटी पर खरा नही पता है तो वोटर रजिस्टर में फार्म '17 अ' भरकर सभी प्रत्याशियों को नकार सकता है। किंतु मतदाताओं में जागरूकता की कमी और निर्वाचन आयोग की नियमावली के नियम '49 ओ' का पर्याप्त प्रचार-प्रसार न हो पाने के कारण इसका ज्ञान अधिकांश मतदाताओं को नही है और इसका प्रयोग न के बराबर हो रहा है। पिछले कुछ समय से जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता ख़त्म करने का अधिकार ' राइट टु रिकाल' भी चर्चा में रहा है। पिछले नवम्बर में दिल्ली में एक गोलमेज सम्मलेन में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी सुझाव दिया था कि जनता के पास 'राइट टु रिकाल' होना चाहिए। 'राइट टु रिकाल' नई अवधारणा नही है। नगर सभ्यता के विकास से लेकर अब तक कई देशों में यह व्यवस्था है। इसके तहत अमेरिका में अब तक लगभग नौ मामलों में मेयरों और गवर्नरों को उनके पदों से हटाया जा चुका है। कनाडा, स्विट्ज़रलैंड और वेनेजुएला में भी यह व्यवस्था हैभ्रष्ट और बेईमान प्रतिनिधियों की सदस्यता को समाप्त करने का यह एक सशक्त नियम है, किंतु इसके दुरूपयोग से भी इंकार नही किया जा सकता है। जो वोटर तमाम बातों को जानते हुए भी दागी व्यक्तियों को चुन सकता है, वह उसे हटाने की प्रक्रिया में जागरूकता से हिस्सा लेगा, इसमें संदेह है

केवल नियमों या व्यवस्थाओं को बना देना ही
पर्याप्त नही होता है बल्कि उनके प्रति जागरूकता पैदा करना और उनका प्रचार-प्रसार कर उनकी सही जानकारी लोगों तक पहुचाने से ही उनकी प्रासंगिकता सिद्ध होती हैइस पूरी चुनाव प्रक्रिया का असर अंततः जनता पर ही पड़ता है। अतः मतदाताओं को भी अपने विवेक के साथ सही प्रत्याशी का ही चुनाव करना होगा , ताकि वह जनता के साथ वह न्याय कर सके।

Saturday, March 7, 2009

भारत की अशांत सीमाएं

अभी पिछले पखवाडे बांग्लादेश में बीडीआर (बांग्लादेश रायफल्स) के पिलखाना स्थित मुख्यालय में सेना के गैरकमीशन प्राप्त अधिकारी, जवान अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ वेतन सम्बन्धी विवाद सुलझाने के लिए इकट्ठे हुए थे। मामला नही सुलझा, जिससे जवान भड़क गए और उन्होंने बगावत कर अपने अधिकारियों पर गोलियां चला दीं। प्रत्यक्ष तौर पर यह भले ही नौकरी और तनख्वाह जैसे मसलों को लेकर नजर आ रहा हो, लेकिन दर्जनों सैन्य अफसरों की हत्या तथा साथ ही डेढ़ सौ से अधिक का लापता होना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि बीडीआर के जवानों का गुस्सा अचानक नही भड़का। इस विद्रोह के पीछे कट्टरपंथियों की शेख हसीना सरकार को अस्थिर करने की साजिश भी हो सकती है, क्योंकि शेख हसीना को बांग्लादेश में चरमपंथ के विरोधी के रूप में देखा जाता है। वजह, 1971 में जबसे पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तथा बांग्लादेश का जन्म हुआ तब से पाकिस्तानी कट्टरपंथी इसके लिए शेख मुजीबुर्रहमान को ही दोषी मानते रहे हैं और जब उनकी सपरिवार न्रशंस हत्या हुई थी उस वक्त भी यह बात उठी थी कि यह हत्या भी पाकिस्तान के इस दुश्मन को हटाने के लिए हुई थी। शेख हसीना उसी मुजीबुर्रहमान की उत्तराधिकारी हैं और उनका सत्ता में लौटना इन कट्टरपंथियों को रास नही आ रहा है।

यह स्थिति केवल बांग्लादेश की ही नही बल्कि पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल भी कमोबेश ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं। पाकिस्तान में तो अशांति का माहौल चरम पर है। पाकिस्तान सरकार द्वारा स्वात घटी में तालिबान से समझौता वहां कट्टरपंथ का हौसला बढ़ाने
के लिए पर्याप्त है। इससे पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में भी कट्टरपंथी ताकतों का प्रभाव बढ़ रहा है। नही भूलना चाहिए कि मुंबई हमलों की साजिश भी पाकिस्तान में ही रची गई थी। श्रीलंका में तमिल छापामारों ने कोलम्बो पर हवाई हमला करके अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। वहां के जातीय संघर्ष का खासा असर तमिलनाडु पर दिखाई दे रहा है। नेपाल की स्थिति भी अच्छी नही है। वहां सत्ता में काबिज माओवादी लोकतान्त्रिक तौर-तरीकों को आत्मसात करते नजर नही आते। भूटान और मालद्वीप के हालात कुछ संतोषजनक हैं किंतु नही भूलना चाहिए कि वहां लोकतंत्र अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है।

भारत इसे पड़ोसी देशों का अपना आतंरिक मामला कहकर अपना पल्ला नही झाड़ सकता। पड़ोसी देशों में जो अशांति और असुरक्षा का माहौल है, इससे भारत की चिंता और जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। दक्षिण एशिया का प्रमुख राष्ट्र होने के साथ ही स्वयं को एक महाशक्ति के रूप में पेश करने वाले भारत की यह जिम्मेदारी बनती है कि इसके इर्द-गिर्द लोकतंत्र की बहाली के साथ शान्ति, सुरक्षा, सदभाव और स्थिरता का माहौल कायम रहे।

अब यही देखना है कि इस चुनावी माहौल में यह जिम्मेदारी कितनी गंभीरता से निभाई जाती है।

Saturday, February 28, 2009

और भी हैं पिंकी

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले का छोटा सा गांव रामपुर ढिबरी। सड़क, बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर है यह गाँव। एक ही रात में पूरी दुनिया के कौतुहल का केन्द्र बन गया। कारण, ऑस्कर विजेता लघु फ़िल्म "स्माइल पिंकी" की नौ-वर्षीया नायिका पिंकी इसी गाँव की है। अमेरिकी फ़िल्म निर्माता मगन मेलन द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म ऐसे बच्चों की कहानी है जिनके होंठ जन्म से कटे हुए है। फ़िल्म के केन्द्र में नौ-वर्षीया बच्ची पिंकी है, जो इस बीमारी के कारण खेलना, कूदना और हँसना भूल चुकी है। बाद में वाराणसी के डॉक्टर सुबोध सिंह सर्जरी करके उसके होंठ ठीक करते हैं। इस वृत-चित्र को ऑस्कर अवार्ड से नवाजा गया है। ऐसे बच्चों के होठों को ठीक करने की कोशिश में 'स्माइल ट्रेन' संगठन भी जुटा हुआ है।

पिंकी की माँ शिमला देवी और मजदूर पिता राजेन्द्र सोनकर आज बहुत खुश हैं। लेकिन पिंकी की माँ के इन शब्दों पर भी जरा गौर करें "मुझे आज तो खुशी हुई है, मगर उस दिन ज्यादा खुशी हुई थी, जब डॉक्टर ने उसके होंठ ठीक कर दिए थे।" ये शब्द कहीं गहरे तक जाते हैं। "स्माइल पिंकी" केवल पिंकी के होंठ ठीक हो जाने की कहानी भर नही है। बल्कि यह उस बच्चे के साथ-साथ माँ-बाप की परेशानी और असहनीय दुःख का एक मार्मिक वर्णन है। यह हमारी जन-स्वास्थ्य व्यवस्था का भी काला सच है। आज देश में लाखों बच्चे कटे होंठ लेकर पैदा होते हैं। यह एक मामूली शारीरिक दोष है, जो एक छोटे से ऑपरेशन से ठीक हो जाता है। लेकिन हमारे देश में ये कटे होंठ एक ऐसी बद-किस्मत हकीकत है जिससे ज्यादातर को पूरे जीवन मुक्ति नही मिल पाती। इस शारीरिक दोष का निवारण तो हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था के तहत नियमित रूप से ही हो जाना चाहिए, किंतु ऐसा हो ही नही पता है। कटे होंठ ही अकेली समस्या नही है। नेत्रहीनता भी हमारे देश की एक गंभीर समस्या है। पोलियो या कुष्ठ रोग की समूल नाश की पुख्ता व्यवस्था आज भी हमारे स्वास्थ्य विभाग के पास नही है। कुपोषण-जनित शारीरिक दोष बच्चों में कहीं भी दिख जायेंगे। यदि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था सही ढंग से कम करे तो फिर किसी विदेशी NGO को सारी दुनिया का ध्यान खींचने के लिए किसी वृत-चित्र बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.

कारण कुछ भी हो हमारी जन-स्वास्थ्य व्यवस्था में सरकार की भागीदारी नही दिख रही है। बावजूद इसके कि हम दुनिया की सबसे तेज तरक्की वाली अर्थ-व्यवस्था हैं और विश्व-शक्ति बनने की तैयारी में हैं। लेकिन अधि-संख्य गरीबों की स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान भी आम आदमी के घर पहुंचना बाकी है। संसद में ऑस्कर जीतने पर हर्ष व्यक्त कर रहे सांसदों में कितनों ने इस पर सोचा होगा?

Saturday, February 21, 2009

पर्यावरण परिवर्तन पर विकसित देशों का रवैया

पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार यदि दुनिया को बचाना है तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना ही होगा। इसी तर्ज पर हाल ही में पोजनन में पर्यावरण परिवर्तन सम्मलेन हुआ। सम्मलेन में जो कुछ सामने आया उसे देखकर सहसा ही विश्वास नही हो पाया कि पर्यावरण परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग पर विकसित देशों की कथनी और करनी में कितना अन्तर है। ग्लोबल वार्मिंग से तापमान पहले ही लगभग आधा डिग्री (०.5) सेंटीग्रेड बढ़ चुका है और वातावरण में उपस्थित ग्रीन हाउस गैसें इतनी अधिक मात्रा में हैं कि तापमान को आसानी से लगभग डेढ़ डिग्री (1.5) सेंटीग्रेड तक बढ़ा सकती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि तापमान २ डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ गया तो दुनिया को भरी तबाही का सामना करना पड़ेगा। इसलिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को प्रभावी रूप से रोकना ही एक मात्र विकल्प है।

दुनिया भर में पट्रोल, डीज़ल आदि खनिज तेलों का लगातार प्रयोग भी वातावरण में कार्बन की मात्रा को बढ़ा रहा है। इनका प्रयोग आज अपरिहार्य हो गया है। इनके बिना आज सभ्यता अधूरी है। लेकिन इनसे होने वाले खतरनाक उत्सर्जन को रोकने का उपाय तो करना ही होगा। इसके लिए सर्वोत्तम उपाय है पेड़-पौधे और जंगलों की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता। किंतु विकासशील देशों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई भी बड़े पैमाने पर हो रही है। इसी का लाभ अमीर देश उठाना चाहते हैं। अमेरिका, आस्ट्रेलिया या ब्रिटेन जैसे अमीर और विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देशों के जंगलों को केवल इसलिए बचाया जाय कि ये अमीर देश अपने उत्सर्जन को वहां खपा सकें। और इसके लिए बाकायदा उन्हें पैसा देने की तैयारी कर रखी है इन्होने। यानि अपना कचरा दूसरों के आँगन में डालने की एक असभ्य और निहायत ही गैर-जिम्मेदाराना तरकीब। परन्तु ये देश शायद भूल रहे हैं कि ज्यादा कचरा इकठ्ठा होने जाने पर दुर्गन्ध तो उनके घरों तक भी पहुँचेगी।

इसके अलावा ये देश कार्बन कैप्चर और स्टोरेज टेक्नोलोजी को आगे तो बढ़ाना चाहते हैं लेकिन इसका विस्तार भी विकासशील देशों में ही करना चाहते हैं। इस तकनीक में कार्बन डाई आक्साइड को सीधे जमीन में ही उतार दिया जाता है, जिससे ये वातावरण में न पहुँच सके। यह तकनीक पूरी तरह से सुरक्षित है या नही इस पर शोध होना बाकी है यानि ये देश चाहते हैं कि विकासशील देशों को पैसा देकर इस तकनीक के द्वारा वहां अपने उत्सर्जन को दफनायें।

अर्थात सीधी सी बात है कि विकसित और अमीर देश अपने उत्सर्जन को कम करना ही नही चाहते जबकि समझौते का प्रमुख उद्देश्य था कि विकसित देश उत्सर्जन घटायें जिससे विकासशील देश भी उन्नति के पथ पर कुछ आगे बढ़ सकें। इन देशों का यह रवैया दुनिया के लिए निश्चित ही एक खतरनाक भविष्य तैयार करेगा। किन्तु ये अमीर देश शायद भूल रहे हैं कि इसका असर तो अंततः उन पर भी पड़ेगा।

Saturday, February 14, 2009

श्रीराम सेना का संस्कृति ज्ञान

प्रमोद मुतालिक, श्रीराम सेना के मुखिया! भारत की संस्कृति के महान विशेषज्ञ! संस्कृति के रक्षक! और क्या-क्या कहूं.... समझ में नही आताये सारे विशेषण कम पड़ रहे हैं प्रमोद मुतालिक का गुणगान करने के लिएइनका भारतीय संस्कृति का ज्ञान इतना व्यापक है कि अच्छे-अच्छों की बोलती बंद देइनका कहना है कि प्यार करना हमारी संस्कृति के खिलाफ हैइनके हिसाब से तो हमारी संस्कृति में नफरत करना हैमारपीट करना, गुंडई करना, लोगों में दहशत फैलाना ही हमारी संस्कृति हैइन्होने अपने गैंग का नाम श्रीराम के नाम पर रखा हैये राम के अनन्य भक्त हैंतभी तो इन्होने श्रीराम के नाम का बेजा इस्तेमाल किया है इनको तो ये भी नही मालूम कि श्रीराम ने भी तो प्रेम का ही संदेश दिया थाश्रीराम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे तो क्या ये प्रेम नही थाशास्त्रों के अनुसार श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार थेभगवान विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था श्रीकृष्ण को तो साक्षात् प्रेम का अवतार माना जाता है

इन सब बातों को देखते हुए मुझे लगता है कि श्रीमान मुतालिक पागल हो गए हैं वो क्या कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं, उसका उनको पता ही नही है पागल आदमी के साथ ऐसा ही होता है वो क्या करता है उसे पता ही नही रहता तो फ़िर इतना हो-हल्ला मचाने की क्या जरुरत है बेचारे मुतालिक को डॉक्टर की जरुरत है, कि हाय-तौबा मचाने की मेरे हिसाब से तो लोगों को एक अच्छे डॉक्टर से मुतालिक का इलाज कराने की व्यवस्था करनी चाहिए

वैसे इस सारे घटना-क्रम पर मीडिया की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है एक निहायत ही घटिया और बेहूदा नाटक को मीडिया ने किस तरह से पेश किया है ये सभी अच्छी तरह से जान ही गए हैं, मैं क्या कहूं! मीडिया ने अपनी हरकतों से एक मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति को रातों-रात मशहूर कर दिया वाह रे मीडिया!! इन ऊट-पटांग मसलों की अपेक्षा मीडिया अगर उचित मामलों पर ज्यादा ध्यान दे तो इस बेचारे देश का काफी भला हो सकता है ...

Thursday, February 5, 2009

बेटी

वहां काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। काफी शोरगुल हो रहा था। लोग अनायास ही उस ओर आकर्षित हो रहे थे। मैं भीकुछ सोचते हुए उस भीड़ में पहुँच गया। एक आदमी नीचे बेहोश लेटा था। एक अन्य आदमी उसके मुंह पर पानी के छींटे मर रहा था। सभी लोग अपनी-अपनी बातों में लगे थे। तभी किसी ने पूछा कि क्या हुआ? किसी ने उसकी बात पर गौर नही किया। उसने फ़िर से जोर से पूछा, अरे भाई इसे क्या हुआ? अचानक कोई बोला "लड़की"। चारों ओर एक सन्नाटा सा छा गया। लोग चुपचाप इधर-उधर जाने लगे।