संजय दत्त को लोकसभा का चुनाव लड़ने से रोकने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने भले ही मुन्ना भाई, उनकी पार्टी और उनके प्रशंसकों को निराश किया हो, किंतु इस फैसले का सकारात्मक पक्ष यह है कि अब उन अनेक अपराधिक इतिहास वाले बाहुबलियों का मनोबल टूटेगा जो चुनाव लड़ने के लिए अपनी सजा का निलंबन कराने के लिए अदालत जाने वाले थे। राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने की दिशा में इस अदालती पहल की सराहना की जानी चाहिए। हालाँकि, यह इनमें दिया जा रहा है कि संजय दत्त को पेशेवर अपराधी की श्रेणी में नही रखा जा सकता। मुंबई की टाडा अदालत और अब शीर्ष अदालत ने भी यह माना है। मुमकिन है कि संजय दत्त निर्दोष हों। हो सकता है कि मुंबई बम-कांड या उसे अंजाम देने वालों के साथ उनके वैसे रिश्ते ना हों। किंतु, 1993 में हुए मुंबई बम-कांड जैसे राष्ट्र-विरोधी मामले में जाने-अनजाने उनकी संलिप्तता को अनदेखा नही किया जा सकता, जिसमें करीब 250 लोग मारे गए थे। उस मामले में विशेष टाडा अदालत ने संजय दत्त को आर्म्स एक्ट के तहत 6 वर्ष की सजा मुक़र्रर की थी। ऊपरी अदालत द्वारा जब तक इसका निपटारा नही हो जाता, संजय दत्त एक सजा-याफ्ता व्यक्ति हैं। चूँकि भारतीय जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (3) के तहत दो साल या इससे अधिक की सजा पाने वाला व्यक्ति चुनाव नही लड़ सकता। अतः शीर्ष अदालत का यह फ़ैसला न्याय-संगत ही है।
सुप्रीम कोर्ट का संजय दत्त को चुनाव लड़ने की इजाजत ना देने का फ़ैसला इस नजरिये से भी स्वागत योग्य है कि देश भर में फैले केंद्रीय कारागार में ना जाने कितने ऐसे सजा-याफ्ता बंदी हैं या जमानत पर छूटे हुए पेशेवर हैं जो सामाजिक स्वीकृति और संसदीय विशेषाधिकारों को हासिल करने के लिए चुनाव लड़ने को तैयार बैठे हैं। अगर संजय दत्त को अनुमति मिल जाती तो यह एक ग़लत परम्परा की शुरुआत होती, जिसकी सीढियाँ चढ़कर इनमें से कई संसद या विधान-सभाओं में पहुँचने का जुगाड़ ढूंढ़ ही लेते।
हाल के कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति में अपराधियों का दखल लगातार बढ़ता ही जा रहा है। यह लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए शुभ संकेत नही है। राजनीति के अपराधीकरण के इस मुद्दे पर किसी भी दल ने ध्यान देने की जरुरत नही समझी। इस पर राजनीतिक दलों से तो कोई उम्मीद नही की जा सकती। ऐसे विकट समय में जबकि न्यायपालिका का यह कदम समयानुकूल एवं प्रशंसनीय है, बाकी काम मतदान के समय जनता को ही करना है।
सुप्रीम कोर्ट का संजय दत्त को चुनाव लड़ने की इजाजत ना देने का फ़ैसला इस नजरिये से भी स्वागत योग्य है कि देश भर में फैले केंद्रीय कारागार में ना जाने कितने ऐसे सजा-याफ्ता बंदी हैं या जमानत पर छूटे हुए पेशेवर हैं जो सामाजिक स्वीकृति और संसदीय विशेषाधिकारों को हासिल करने के लिए चुनाव लड़ने को तैयार बैठे हैं। अगर संजय दत्त को अनुमति मिल जाती तो यह एक ग़लत परम्परा की शुरुआत होती, जिसकी सीढियाँ चढ़कर इनमें से कई संसद या विधान-सभाओं में पहुँचने का जुगाड़ ढूंढ़ ही लेते।
हाल के कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति में अपराधियों का दखल लगातार बढ़ता ही जा रहा है। यह लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए शुभ संकेत नही है। राजनीति के अपराधीकरण के इस मुद्दे पर किसी भी दल ने ध्यान देने की जरुरत नही समझी। इस पर राजनीतिक दलों से तो कोई उम्मीद नही की जा सकती। ऐसे विकट समय में जबकि न्यायपालिका का यह कदम समयानुकूल एवं प्रशंसनीय है, बाकी काम मतदान के समय जनता को ही करना है।
राजनीती का शुद्धिकरण हो. पाप कटें, दुःख हरें! सुप्रीम कोर्ट की जय हो!
ReplyDeleteसिर्फ एक फैसले से राजनीति का अपराधीकरण रूक जाएगा क्या ... और जनता क्या करेगी ... आप्शन के अंदर ही तो चुनाव करना है उसे।
ReplyDeleteमीडिया की मदद से अमर सिंह और संजयदत्त इसी तरह सरकार और फ़ैसले के बहाने छुप कर न्यायपालिका पर निशाना साधते रहे तो अपराधियों के हौंसले बुलंद होंगे और अदालतों का विश्वास टूटेगा ।
ReplyDeleteits good decesion by SC.
ReplyDeleteसंगीतजी ने सही कहा है अंधों मे काना राजा चुनना पडेगा अगर किसी भी अपराधी को चुनाव ना कडने दिया जये तभी कुछ सुधार हो सकता है
ReplyDeleteआज़ादी की 62वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं। इस सुअवसर पर मेरे ब्लोग की प्रथम वर्षगांठ है। आप लोगों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मिले सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपकी आभारी हूं। प्रथम वर्षगांठ पर मेरे ब्लोग पर पधार मुझे कृतार्थ करें। शुभ कामनाओं के साथ-
ReplyDeleteरचना गौड़ ‘भारती’