Saturday, February 28, 2009

और भी हैं पिंकी

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले का छोटा सा गांव रामपुर ढिबरी। सड़क, बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर है यह गाँव। एक ही रात में पूरी दुनिया के कौतुहल का केन्द्र बन गया। कारण, ऑस्कर विजेता लघु फ़िल्म "स्माइल पिंकी" की नौ-वर्षीया नायिका पिंकी इसी गाँव की है। अमेरिकी फ़िल्म निर्माता मगन मेलन द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म ऐसे बच्चों की कहानी है जिनके होंठ जन्म से कटे हुए है। फ़िल्म के केन्द्र में नौ-वर्षीया बच्ची पिंकी है, जो इस बीमारी के कारण खेलना, कूदना और हँसना भूल चुकी है। बाद में वाराणसी के डॉक्टर सुबोध सिंह सर्जरी करके उसके होंठ ठीक करते हैं। इस वृत-चित्र को ऑस्कर अवार्ड से नवाजा गया है। ऐसे बच्चों के होठों को ठीक करने की कोशिश में 'स्माइल ट्रेन' संगठन भी जुटा हुआ है।

पिंकी की माँ शिमला देवी और मजदूर पिता राजेन्द्र सोनकर आज बहुत खुश हैं। लेकिन पिंकी की माँ के इन शब्दों पर भी जरा गौर करें "मुझे आज तो खुशी हुई है, मगर उस दिन ज्यादा खुशी हुई थी, जब डॉक्टर ने उसके होंठ ठीक कर दिए थे।" ये शब्द कहीं गहरे तक जाते हैं। "स्माइल पिंकी" केवल पिंकी के होंठ ठीक हो जाने की कहानी भर नही है। बल्कि यह उस बच्चे के साथ-साथ माँ-बाप की परेशानी और असहनीय दुःख का एक मार्मिक वर्णन है। यह हमारी जन-स्वास्थ्य व्यवस्था का भी काला सच है। आज देश में लाखों बच्चे कटे होंठ लेकर पैदा होते हैं। यह एक मामूली शारीरिक दोष है, जो एक छोटे से ऑपरेशन से ठीक हो जाता है। लेकिन हमारे देश में ये कटे होंठ एक ऐसी बद-किस्मत हकीकत है जिससे ज्यादातर को पूरे जीवन मुक्ति नही मिल पाती। इस शारीरिक दोष का निवारण तो हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था के तहत नियमित रूप से ही हो जाना चाहिए, किंतु ऐसा हो ही नही पता है। कटे होंठ ही अकेली समस्या नही है। नेत्रहीनता भी हमारे देश की एक गंभीर समस्या है। पोलियो या कुष्ठ रोग की समूल नाश की पुख्ता व्यवस्था आज भी हमारे स्वास्थ्य विभाग के पास नही है। कुपोषण-जनित शारीरिक दोष बच्चों में कहीं भी दिख जायेंगे। यदि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था सही ढंग से कम करे तो फिर किसी विदेशी NGO को सारी दुनिया का ध्यान खींचने के लिए किसी वृत-चित्र बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.

कारण कुछ भी हो हमारी जन-स्वास्थ्य व्यवस्था में सरकार की भागीदारी नही दिख रही है। बावजूद इसके कि हम दुनिया की सबसे तेज तरक्की वाली अर्थ-व्यवस्था हैं और विश्व-शक्ति बनने की तैयारी में हैं। लेकिन अधि-संख्य गरीबों की स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान भी आम आदमी के घर पहुंचना बाकी है। संसद में ऑस्कर जीतने पर हर्ष व्यक्त कर रहे सांसदों में कितनों ने इस पर सोचा होगा?

Saturday, February 21, 2009

पर्यावरण परिवर्तन पर विकसित देशों का रवैया

पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार यदि दुनिया को बचाना है तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना ही होगा। इसी तर्ज पर हाल ही में पोजनन में पर्यावरण परिवर्तन सम्मलेन हुआ। सम्मलेन में जो कुछ सामने आया उसे देखकर सहसा ही विश्वास नही हो पाया कि पर्यावरण परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग पर विकसित देशों की कथनी और करनी में कितना अन्तर है। ग्लोबल वार्मिंग से तापमान पहले ही लगभग आधा डिग्री (०.5) सेंटीग्रेड बढ़ चुका है और वातावरण में उपस्थित ग्रीन हाउस गैसें इतनी अधिक मात्रा में हैं कि तापमान को आसानी से लगभग डेढ़ डिग्री (1.5) सेंटीग्रेड तक बढ़ा सकती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि तापमान २ डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ गया तो दुनिया को भरी तबाही का सामना करना पड़ेगा। इसलिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को प्रभावी रूप से रोकना ही एक मात्र विकल्प है।

दुनिया भर में पट्रोल, डीज़ल आदि खनिज तेलों का लगातार प्रयोग भी वातावरण में कार्बन की मात्रा को बढ़ा रहा है। इनका प्रयोग आज अपरिहार्य हो गया है। इनके बिना आज सभ्यता अधूरी है। लेकिन इनसे होने वाले खतरनाक उत्सर्जन को रोकने का उपाय तो करना ही होगा। इसके लिए सर्वोत्तम उपाय है पेड़-पौधे और जंगलों की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता। किंतु विकासशील देशों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई भी बड़े पैमाने पर हो रही है। इसी का लाभ अमीर देश उठाना चाहते हैं। अमेरिका, आस्ट्रेलिया या ब्रिटेन जैसे अमीर और विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देशों के जंगलों को केवल इसलिए बचाया जाय कि ये अमीर देश अपने उत्सर्जन को वहां खपा सकें। और इसके लिए बाकायदा उन्हें पैसा देने की तैयारी कर रखी है इन्होने। यानि अपना कचरा दूसरों के आँगन में डालने की एक असभ्य और निहायत ही गैर-जिम्मेदाराना तरकीब। परन्तु ये देश शायद भूल रहे हैं कि ज्यादा कचरा इकठ्ठा होने जाने पर दुर्गन्ध तो उनके घरों तक भी पहुँचेगी।

इसके अलावा ये देश कार्बन कैप्चर और स्टोरेज टेक्नोलोजी को आगे तो बढ़ाना चाहते हैं लेकिन इसका विस्तार भी विकासशील देशों में ही करना चाहते हैं। इस तकनीक में कार्बन डाई आक्साइड को सीधे जमीन में ही उतार दिया जाता है, जिससे ये वातावरण में न पहुँच सके। यह तकनीक पूरी तरह से सुरक्षित है या नही इस पर शोध होना बाकी है यानि ये देश चाहते हैं कि विकासशील देशों को पैसा देकर इस तकनीक के द्वारा वहां अपने उत्सर्जन को दफनायें।

अर्थात सीधी सी बात है कि विकसित और अमीर देश अपने उत्सर्जन को कम करना ही नही चाहते जबकि समझौते का प्रमुख उद्देश्य था कि विकसित देश उत्सर्जन घटायें जिससे विकासशील देश भी उन्नति के पथ पर कुछ आगे बढ़ सकें। इन देशों का यह रवैया दुनिया के लिए निश्चित ही एक खतरनाक भविष्य तैयार करेगा। किन्तु ये अमीर देश शायद भूल रहे हैं कि इसका असर तो अंततः उन पर भी पड़ेगा।

Saturday, February 14, 2009

श्रीराम सेना का संस्कृति ज्ञान

प्रमोद मुतालिक, श्रीराम सेना के मुखिया! भारत की संस्कृति के महान विशेषज्ञ! संस्कृति के रक्षक! और क्या-क्या कहूं.... समझ में नही आताये सारे विशेषण कम पड़ रहे हैं प्रमोद मुतालिक का गुणगान करने के लिएइनका भारतीय संस्कृति का ज्ञान इतना व्यापक है कि अच्छे-अच्छों की बोलती बंद देइनका कहना है कि प्यार करना हमारी संस्कृति के खिलाफ हैइनके हिसाब से तो हमारी संस्कृति में नफरत करना हैमारपीट करना, गुंडई करना, लोगों में दहशत फैलाना ही हमारी संस्कृति हैइन्होने अपने गैंग का नाम श्रीराम के नाम पर रखा हैये राम के अनन्य भक्त हैंतभी तो इन्होने श्रीराम के नाम का बेजा इस्तेमाल किया है इनको तो ये भी नही मालूम कि श्रीराम ने भी तो प्रेम का ही संदेश दिया थाश्रीराम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे तो क्या ये प्रेम नही थाशास्त्रों के अनुसार श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार थेभगवान विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था श्रीकृष्ण को तो साक्षात् प्रेम का अवतार माना जाता है

इन सब बातों को देखते हुए मुझे लगता है कि श्रीमान मुतालिक पागल हो गए हैं वो क्या कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं, उसका उनको पता ही नही है पागल आदमी के साथ ऐसा ही होता है वो क्या करता है उसे पता ही नही रहता तो फ़िर इतना हो-हल्ला मचाने की क्या जरुरत है बेचारे मुतालिक को डॉक्टर की जरुरत है, कि हाय-तौबा मचाने की मेरे हिसाब से तो लोगों को एक अच्छे डॉक्टर से मुतालिक का इलाज कराने की व्यवस्था करनी चाहिए

वैसे इस सारे घटना-क्रम पर मीडिया की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है एक निहायत ही घटिया और बेहूदा नाटक को मीडिया ने किस तरह से पेश किया है ये सभी अच्छी तरह से जान ही गए हैं, मैं क्या कहूं! मीडिया ने अपनी हरकतों से एक मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति को रातों-रात मशहूर कर दिया वाह रे मीडिया!! इन ऊट-पटांग मसलों की अपेक्षा मीडिया अगर उचित मामलों पर ज्यादा ध्यान दे तो इस बेचारे देश का काफी भला हो सकता है ...

Thursday, February 5, 2009

बेटी

वहां काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। काफी शोरगुल हो रहा था। लोग अनायास ही उस ओर आकर्षित हो रहे थे। मैं भीकुछ सोचते हुए उस भीड़ में पहुँच गया। एक आदमी नीचे बेहोश लेटा था। एक अन्य आदमी उसके मुंह पर पानी के छींटे मर रहा था। सभी लोग अपनी-अपनी बातों में लगे थे। तभी किसी ने पूछा कि क्या हुआ? किसी ने उसकी बात पर गौर नही किया। उसने फ़िर से जोर से पूछा, अरे भाई इसे क्या हुआ? अचानक कोई बोला "लड़की"। चारों ओर एक सन्नाटा सा छा गया। लोग चुपचाप इधर-उधर जाने लगे।