वो जिन्दगी भर,
दूसरों के शब्द बोलता रहा |हर शब्दों को,
उचित अर्थ की
डिजिटल तराजुओं पर में तोलता रहा |
अपने शब्दकोशों की तरलताओं को,
दूसरों की विचार गंगाओं में घोलता रहा |तरसा जीवन पर्यंत,
अपने कुछ शब्द बोलने को |
अपने मन के ज्वर भाटों से
सिर्फ खुद को ही सचेत किया |एक भी शब्द कभी
अपनी मर्जी से इधर-उधर नहीं किया |
अपनी पहचान का
शब्द मात्र भी,अपने वजूद में न सिया,
वो बना रहा जीवन भर
सिर्फ और सिर्फ,
दुभाषिया |
साभार - डा प्रमोद निधि