Tuesday, July 19, 2011

दुभाषिया

वो जिन्दगी भर,
 दूसरों के शब्द बोलता रहा |
 हर शब्दों को,
 उचित अर्थ की
 डिजिटल तराजुओं पर में तोलता रहा |

 अपने शब्दकोशों की तरलताओं को,
 दूसरों की विचार गंगाओं में घोलता रहा |
 तरसा जीवन पर्यंत,
 अपने कुछ शब्द बोलने को |

अपने मन के ज्वर भाटों से
 सिर्फ खुद को ही सचेत किया |
 एक भी शब्द कभी
 अपनी मर्जी से इधर-उधर नहीं किया |

अपनी पहचान का
 शब्द मात्र भी,
 अपने वजूद में न सिया,
 वो बना रहा जीवन भर
 सिर्फ और सिर्फ,
 दुभाषिया |
 साभार - डा प्रमोद निधि

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