Saturday, February 21, 2009

पर्यावरण परिवर्तन पर विकसित देशों का रवैया

पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार यदि दुनिया को बचाना है तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना ही होगा। इसी तर्ज पर हाल ही में पोजनन में पर्यावरण परिवर्तन सम्मलेन हुआ। सम्मलेन में जो कुछ सामने आया उसे देखकर सहसा ही विश्वास नही हो पाया कि पर्यावरण परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग पर विकसित देशों की कथनी और करनी में कितना अन्तर है। ग्लोबल वार्मिंग से तापमान पहले ही लगभग आधा डिग्री (०.5) सेंटीग्रेड बढ़ चुका है और वातावरण में उपस्थित ग्रीन हाउस गैसें इतनी अधिक मात्रा में हैं कि तापमान को आसानी से लगभग डेढ़ डिग्री (1.5) सेंटीग्रेड तक बढ़ा सकती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि तापमान २ डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ गया तो दुनिया को भरी तबाही का सामना करना पड़ेगा। इसलिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को प्रभावी रूप से रोकना ही एक मात्र विकल्प है।

दुनिया भर में पट्रोल, डीज़ल आदि खनिज तेलों का लगातार प्रयोग भी वातावरण में कार्बन की मात्रा को बढ़ा रहा है। इनका प्रयोग आज अपरिहार्य हो गया है। इनके बिना आज सभ्यता अधूरी है। लेकिन इनसे होने वाले खतरनाक उत्सर्जन को रोकने का उपाय तो करना ही होगा। इसके लिए सर्वोत्तम उपाय है पेड़-पौधे और जंगलों की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता। किंतु विकासशील देशों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई भी बड़े पैमाने पर हो रही है। इसी का लाभ अमीर देश उठाना चाहते हैं। अमेरिका, आस्ट्रेलिया या ब्रिटेन जैसे अमीर और विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देशों के जंगलों को केवल इसलिए बचाया जाय कि ये अमीर देश अपने उत्सर्जन को वहां खपा सकें। और इसके लिए बाकायदा उन्हें पैसा देने की तैयारी कर रखी है इन्होने। यानि अपना कचरा दूसरों के आँगन में डालने की एक असभ्य और निहायत ही गैर-जिम्मेदाराना तरकीब। परन्तु ये देश शायद भूल रहे हैं कि ज्यादा कचरा इकठ्ठा होने जाने पर दुर्गन्ध तो उनके घरों तक भी पहुँचेगी।

इसके अलावा ये देश कार्बन कैप्चर और स्टोरेज टेक्नोलोजी को आगे तो बढ़ाना चाहते हैं लेकिन इसका विस्तार भी विकासशील देशों में ही करना चाहते हैं। इस तकनीक में कार्बन डाई आक्साइड को सीधे जमीन में ही उतार दिया जाता है, जिससे ये वातावरण में न पहुँच सके। यह तकनीक पूरी तरह से सुरक्षित है या नही इस पर शोध होना बाकी है यानि ये देश चाहते हैं कि विकासशील देशों को पैसा देकर इस तकनीक के द्वारा वहां अपने उत्सर्जन को दफनायें।

अर्थात सीधी सी बात है कि विकसित और अमीर देश अपने उत्सर्जन को कम करना ही नही चाहते जबकि समझौते का प्रमुख उद्देश्य था कि विकसित देश उत्सर्जन घटायें जिससे विकासशील देश भी उन्नति के पथ पर कुछ आगे बढ़ सकें। इन देशों का यह रवैया दुनिया के लिए निश्चित ही एक खतरनाक भविष्य तैयार करेगा। किन्तु ये अमीर देश शायद भूल रहे हैं कि इसका असर तो अंततः उन पर भी पड़ेगा।

2 comments:

  1. बेहतर विश्लेषण। जानकारी पूर्ण लेख।

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  2. विकासशील देशों की हैसियत उनकी नज़र में गिनी पिग से ज़्यादा कुछ है नहीं.

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