Saturday, March 28, 2009

माया महा ठगिनी...

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर अब तक लोकसभा चुनाव पर होने वाले सरकारी खर्च में बेतहाशा वृद्धि हुई हैसन1952 में हुए प्रथम लोकसभा के चुनाव में करीब दस करोड़ पैंतालिस लाख रूपये खर्च हुए थेजबकि 2004 में चुनाव में लगभग तेरह अरब रूपये खर्च हुए थेसेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के आंकडों के मुताबिक पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियाँ लगभग साढे तेतालीस अरब रूपये खर्च करेंगीइसके अलावा क्षेत्रीय पार्टियाँ भी करीब दस अरब रूपये खर्च करने वाली हैंइस चुनावी मौसम में अपने फायदे के लिए कई नेताओं ने डाक्यूमेंट्री-विज्ञापन फिल्में बनवाई हैंलालकृष्ण आडवाणी, मायावती, मुरली मनोहर जोशी, केसरीनाथ त्रिपाठी के अलावा और भी नेताओं ने अपने ऊपर फिल्में बनवाने के लिए विज्ञापन एजेंसियों और फिल्मकारों की सेवाएं ली हैंइन्हें बनवाने के लिए नेताओं ने कुछ लाख से लेकर करोड़ तक खर्च किए हैंकांग्रेस पार्टी ने चुनावी प्रचार के लिए अपना बजट लगभग 150 करोड़ रूपये निर्धारित किया हैवहीं भारतीय जनता पार्टी ने इस मद में लगभग 250 करोड़ रूपये खर्च करने की तैयारी कर ली हैसिटी ग्रुप ग्लोबल मार्केट की रिपोर्ट के अनुसार, इस चुनाव में विज्ञापनों पर कम से कम 800 करोड़ रूपये खर्च होंगेसेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज के मुताबिक, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव पर 8000 करोड़ रूपये खर्च हुएखास बात यह है कि जहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर 8000 करोड़ रूपये की रकम लगभग एक साल में खर्च की गई, वहीं भारतीय लोकसभा चुनाव पर करीब 10,000 करोड़ रूपये चंद महीनों में ही खर्च हो जायेंगेविज्ञापनों के अलावा मतदाताओं के बीच भी एक बड़ी रकम लुटाई जानी हैइसे उचित ठहराते हुए नेताओं का मानना है कि चर्चा, पर्चा और खर्चा तो चुनाव में होना ही चाहिएसोचने वाली बात तो यह है कि इतना पैसा आएगा कहाँ से!

ग्रह मंत्रालय के अफसरों के अनुसार फॉरेन कंट्रीब्युशन रेग्युलेशन एक्ट (FCRA) के तहत पिछले चुनाव में करीब 6 हजार 256 करोड़ रूपये विदेश से आए थे, जबकि ताजा आंकडों के मुताबिक अब तक 14 हजार 926 अरब रूपये FCRA की जानकारी में आए हैंभारत में अमेरिका के राजदूत रहे डेनियल पैट्रिक ने अपनी किताब में लिखा कि केरल और पश्चिम बंगाल में सत्ता समीकरण बदलने के लिए उन्होंने श्रीमती गाँधी को पैसे दिए थेकांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने अपनी डायरी में लिखा कि श्रीमती गाँधी सोवियत संघ से पैसा लिया करतीं थीं2007 में क्रिस्टोफर आंद्रे ने अपनी पुस्तक "मित्रोखिन आर्काइव-टु" में ऐसे ही 375 लोगों के नाम प्रकाशित किए जिनके नाम सोवियत संघ से पैसा आता थाउन्होंने पूर्व प्रतिरक्षा मंत्री कृष्ण मेनन का नाम भी लिया। "मितोखिन आर्काइव-टु" में और भी कई सनसनी-खेज खुलासे किए गएइसके अलावा सीआईए-मोसाद से आर्थिक मदद लेने के आरोप भाजपा पर भी लगेरेमण्ड बेकर की पुस्तक "कैपिट्लिस्म अकिलीज हील" में भी खुलासा किया गया है कि पश्चिम से 5 लाख करोड़ डॉलर गरीब देशों में षडयंत्र करने और मर्जी की सरकार बनवाने के लिए भेजे गए

बम-बन्दूक, दारू-शराब और दौलत के बिना चुनाव सम्भव क्यों नही है? क्या इस सब के बाद विदेशी ताकतें अपना हित साधने के लिए भारतीय राजनीति में घुसपैठ नही करेंगी? क्या इससे भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति प्रभावित नही होगी? इस सब को रोकना ही होगा, अन्यथा भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए एक गंभीर संकट खड़ा हो जाएगा

Sunday, March 22, 2009

रैगिंग, एक अभिशाप

हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले के मेडिकल कालेज के छात्र अमन की मौत से सारा देश सकते में है इससे संकेत मिलता है कि शिक्षण संस्थाओं में रैगिंग कितने गहरे तक पैठ बना चुकी है. कालेजों और विश्वविद्यालयों में रैगिंग का अत्यन्त भयावह रूप सामने रहा हैआमतौर पर वरिष्ठ लोगों की ओर से यह तर्क दिए जाते है कि छात्रों की आपस में अच्छी जन-पहचान के लिए यह एक परिचय-पार्टी के रूप में जरुरी हैइससे समरस शैक्षिक माहौल बनता हैयह तर्क इंग्लॅण्ड के इलीट कालेजों से आया है और वहीं से रैगिंग भी शुरू हुई हैइसके पीछे शासन करने और सताने की मानसिकता काम करती है, जिसके लिए लोकतान्त्रिक समाज में कोई जगह नही है इसीलिए यह वहां तो बंद हो गई, किंतु भारत में अभी भी चल रही हैजूनियर छात्र जब कालेज पहुँचते हैं तो पहले से ही उनपर काफी मानसिक दबाव रहता हैऐसे में यह परिचय पार्टी जूनियर-सीनियर के अन्तर को समाप्त कर उनमें बेहतर तालमेल बैठने में मददगार होती हैकिंतु धीरे-धीरे इसका स्वरूप विकृत होता चला गया और यह जघन्य कृत्यों की श्रेणी तक पहुँच गयानए छात्रों का अपमान, उत्पीडन और शोषण इसके अनिवार्य अंग बन गए हैं। पहले रैगिंग नए विद्यार्थियों के प्रवेश के कुछ दिनों तक ही चलती थी, किंतु अब यह तब तक चलती है जब तककि छात्र स्वयं सबसे ऊँची कक्षा में नही पहुँच जाता। रैगिंग की यह बीमारी हर साल तमाम छात्रों को अच्छे प्रोफेशनल कालेजों को छोड़ने पर विवश कर देती है और कई संवेदनशील छात्रों को मानसिक रूप से कुंठित और बीमार बना देती है। रैगिंग की कुंठा से बनी बीमारी न केवल व्यावसायिक कोर्स के आखरी साल तक बनी रहती है बल्कि वह आगे शिक्षक और प्राचार्य तक पैठी रहती है। सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देश एवं सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघव की सिफारिशों के बावजूद विभिन्न राज्यों में बने रैगिंग रोकने वाले कानून ठीक से लागू नही हो पा रहे हैं।

रैगिंग बढ़ने का एक कारण शिक्षण संस्थाओं में मूल्यों का ह्रास तथा कार्य संस्कृति की कमजोरी भी है। पिछले दो दशकों में व्यावसायिक संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी है। यह अच्छा कदम है किंतु इस बढोत्तरी से कुछ चिंताजनक प्रवृतियाँ भी उभरी हैं। एक तो शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है, दूसरा इनमें छात्र-शिक्षक के संबंधों में गर्माहट भी कम हुई है। अतः छात्रों को अपेक्षित मार्गदर्शन नही मिल पाता है। किशोरावस्था अत्यन्त संवेदनशील होती है। इस अवस्था में विद्यार्थी को मार्गदर्शन तथा दिशा-निर्देश की आवश्यकता होती है। इसीलिए शिक्षण-संस्थाओं में गाइडेंस कौन्सिलिंग की व्यवस्था का प्रावधान है किंतु अधिकांश संस्थाओं में या तो इन पदों पर नियुक्ति ही नही होती या फ़िर उन्हें कक्षाओं में केवल अरेंजमेंट के तौर परही भेजा जाता है। फलतः छात्रों को वह वातावरण नही मिल पता जो उनके अन्दर आत्मविश्वास पैदा करे तथा सही राह दिखाए। हॉस्टल वार्डेन की उपस्थिति तथा सजगता भी रैगिंग को विचारशील सांस्कृतिक कार्यक्रम में बदल सकती है।

रैगिंग प्रतिभा के घरेलू विकास में बड़ी बाधा बनकर उभर रही है। इसके पीछे जाति, धर्म और क्षेत्र की कुंठाएं भी काम करती हैं और यौन-कुंठाएं भी अपनी भूमिका अदा हैं। जाहिर है, शिक्षा के उदारीकरण के इस युग में रैगिंग भारतीय शैक्षिणिक संस्थाओं की छवि को दुनिया भर में बट्टा भी लगायेगी। रैगिंग के कारणों, स्वरूप तथा प्रवृति का मनोवैज्ञानिक अद्ध्ययन तथा समझ आवश्यक है। यह एक गंभीर समस्या है। उच्चतम न्यायालय के आदेशों तथा निर्देशों पर अमल तभी होगा जब प्राचार्य , अध्यापक और वार्डेन अपने कर्तव्यों का जिम्मेदारी से निर्वाह करें

कांगडा की इस त्रासदी के बाद रैगिंग में प्रताड़ना के और भी प्रकरण सामने आ सकते हैं। इससे पहले की स्थिति और बिगडे, त्वरित तथा दूरगामी उपाय करने होंगे।


Sunday, March 15, 2009

नो वोट और राइट टु रिकाल

भारत के लोकतंत्र को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रों में गिना जाता है। लेकिन आजादी से लेकर आज तक धीरे-धीरे यह लोकतंत्र से अपराधी-तंत्र में परिवर्तित होता जा रहा है। आज अकर्मण्य, बेईमान तथा भ्रष्ट जन-प्रतिनिधियों की प्रत्येक पार्टी में भरमार है। कोई भी पार्टी या दल ऐसा नही है जिसमें अपराधिक प्रवृति के लोग न हों। चौदहवीं लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो चुका है तथा पंद्रहवीं लोकसभा के लिए घमासान शुरू हो चुका है।पिछली लोकसभा का लेखा-जोखा देखें तो झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के 5 सांसदों में से 5 (100%), बसपा के 19 सांसदों में से 8 (42%), जद(यु) के 8 सांसदों में से 3 (38%), भाजपा के 138 सांसदों में से 29 (21%), कांग्रेस के 145 सांसदों में से 26 (18%) तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 43 सांसदों में से 7 (16%) सांसद दागी थे। नेशनल वाच द्वारा वर्ष 2004 के आम चुनाव को आधार बनाकर किये गए इस सर्वक्षण के अनुसार कुल निर्वाचित 539 सांसदों में से 125 यानि 23% सांसद दागी थे। पंद्रहवीं लोकसभा में किसी भी एक पार्टी को बहुमत मिलेगा, इसमें संदेह है। गठजोड़ की सरकार में जिसके पास ज्यादा सांसद होंगे वही किंगमेकर होगा। अतः इस बार भी अपराधिक प्रवृति ले लोग खुलकर मैदान में होंगे।

इस सब के लिए जनता-जनार्दन ही जिम्मेदार है, क्योंकि ऐसे दागियों को जनता ही चुनकर संसद में भेजती है। इसके लिए जनता भी अपने जिम्मेदारी से नही बच सकती है। ऐसा नही है कि जनता के पास इसका कोई विकल्प
नही है। राजनीति में अयोग्य लोगों को आने से रोकने के लिए निर्वाचन आयोग की नियमावली के नियम '49 ओ' में मतदाताओं को सभी प्रत्याशियों को नकारने का विकल्प दिया गया है। अगर मतदाता किसी भी प्रत्याशी को चुनाव की कसौटी पर खरा नही पता है तो वोटर रजिस्टर में फार्म '17 अ' भरकर सभी प्रत्याशियों को नकार सकता है। किंतु मतदाताओं में जागरूकता की कमी और निर्वाचन आयोग की नियमावली के नियम '49 ओ' का पर्याप्त प्रचार-प्रसार न हो पाने के कारण इसका ज्ञान अधिकांश मतदाताओं को नही है और इसका प्रयोग न के बराबर हो रहा है। पिछले कुछ समय से जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता ख़त्म करने का अधिकार ' राइट टु रिकाल' भी चर्चा में रहा है। पिछले नवम्बर में दिल्ली में एक गोलमेज सम्मलेन में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी सुझाव दिया था कि जनता के पास 'राइट टु रिकाल' होना चाहिए। 'राइट टु रिकाल' नई अवधारणा नही है। नगर सभ्यता के विकास से लेकर अब तक कई देशों में यह व्यवस्था है। इसके तहत अमेरिका में अब तक लगभग नौ मामलों में मेयरों और गवर्नरों को उनके पदों से हटाया जा चुका है। कनाडा, स्विट्ज़रलैंड और वेनेजुएला में भी यह व्यवस्था हैभ्रष्ट और बेईमान प्रतिनिधियों की सदस्यता को समाप्त करने का यह एक सशक्त नियम है, किंतु इसके दुरूपयोग से भी इंकार नही किया जा सकता है। जो वोटर तमाम बातों को जानते हुए भी दागी व्यक्तियों को चुन सकता है, वह उसे हटाने की प्रक्रिया में जागरूकता से हिस्सा लेगा, इसमें संदेह है

केवल नियमों या व्यवस्थाओं को बना देना ही
पर्याप्त नही होता है बल्कि उनके प्रति जागरूकता पैदा करना और उनका प्रचार-प्रसार कर उनकी सही जानकारी लोगों तक पहुचाने से ही उनकी प्रासंगिकता सिद्ध होती हैइस पूरी चुनाव प्रक्रिया का असर अंततः जनता पर ही पड़ता है। अतः मतदाताओं को भी अपने विवेक के साथ सही प्रत्याशी का ही चुनाव करना होगा , ताकि वह जनता के साथ वह न्याय कर सके।

Saturday, March 7, 2009

भारत की अशांत सीमाएं

अभी पिछले पखवाडे बांग्लादेश में बीडीआर (बांग्लादेश रायफल्स) के पिलखाना स्थित मुख्यालय में सेना के गैरकमीशन प्राप्त अधिकारी, जवान अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ वेतन सम्बन्धी विवाद सुलझाने के लिए इकट्ठे हुए थे। मामला नही सुलझा, जिससे जवान भड़क गए और उन्होंने बगावत कर अपने अधिकारियों पर गोलियां चला दीं। प्रत्यक्ष तौर पर यह भले ही नौकरी और तनख्वाह जैसे मसलों को लेकर नजर आ रहा हो, लेकिन दर्जनों सैन्य अफसरों की हत्या तथा साथ ही डेढ़ सौ से अधिक का लापता होना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि बीडीआर के जवानों का गुस्सा अचानक नही भड़का। इस विद्रोह के पीछे कट्टरपंथियों की शेख हसीना सरकार को अस्थिर करने की साजिश भी हो सकती है, क्योंकि शेख हसीना को बांग्लादेश में चरमपंथ के विरोधी के रूप में देखा जाता है। वजह, 1971 में जबसे पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तथा बांग्लादेश का जन्म हुआ तब से पाकिस्तानी कट्टरपंथी इसके लिए शेख मुजीबुर्रहमान को ही दोषी मानते रहे हैं और जब उनकी सपरिवार न्रशंस हत्या हुई थी उस वक्त भी यह बात उठी थी कि यह हत्या भी पाकिस्तान के इस दुश्मन को हटाने के लिए हुई थी। शेख हसीना उसी मुजीबुर्रहमान की उत्तराधिकारी हैं और उनका सत्ता में लौटना इन कट्टरपंथियों को रास नही आ रहा है।

यह स्थिति केवल बांग्लादेश की ही नही बल्कि पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल भी कमोबेश ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं। पाकिस्तान में तो अशांति का माहौल चरम पर है। पाकिस्तान सरकार द्वारा स्वात घटी में तालिबान से समझौता वहां कट्टरपंथ का हौसला बढ़ाने
के लिए पर्याप्त है। इससे पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में भी कट्टरपंथी ताकतों का प्रभाव बढ़ रहा है। नही भूलना चाहिए कि मुंबई हमलों की साजिश भी पाकिस्तान में ही रची गई थी। श्रीलंका में तमिल छापामारों ने कोलम्बो पर हवाई हमला करके अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। वहां के जातीय संघर्ष का खासा असर तमिलनाडु पर दिखाई दे रहा है। नेपाल की स्थिति भी अच्छी नही है। वहां सत्ता में काबिज माओवादी लोकतान्त्रिक तौर-तरीकों को आत्मसात करते नजर नही आते। भूटान और मालद्वीप के हालात कुछ संतोषजनक हैं किंतु नही भूलना चाहिए कि वहां लोकतंत्र अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है।

भारत इसे पड़ोसी देशों का अपना आतंरिक मामला कहकर अपना पल्ला नही झाड़ सकता। पड़ोसी देशों में जो अशांति और असुरक्षा का माहौल है, इससे भारत की चिंता और जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। दक्षिण एशिया का प्रमुख राष्ट्र होने के साथ ही स्वयं को एक महाशक्ति के रूप में पेश करने वाले भारत की यह जिम्मेदारी बनती है कि इसके इर्द-गिर्द लोकतंत्र की बहाली के साथ शान्ति, सुरक्षा, सदभाव और स्थिरता का माहौल कायम रहे।

अब यही देखना है कि इस चुनावी माहौल में यह जिम्मेदारी कितनी गंभीरता से निभाई जाती है।