Saturday, March 7, 2009

भारत की अशांत सीमाएं

अभी पिछले पखवाडे बांग्लादेश में बीडीआर (बांग्लादेश रायफल्स) के पिलखाना स्थित मुख्यालय में सेना के गैरकमीशन प्राप्त अधिकारी, जवान अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ वेतन सम्बन्धी विवाद सुलझाने के लिए इकट्ठे हुए थे। मामला नही सुलझा, जिससे जवान भड़क गए और उन्होंने बगावत कर अपने अधिकारियों पर गोलियां चला दीं। प्रत्यक्ष तौर पर यह भले ही नौकरी और तनख्वाह जैसे मसलों को लेकर नजर आ रहा हो, लेकिन दर्जनों सैन्य अफसरों की हत्या तथा साथ ही डेढ़ सौ से अधिक का लापता होना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि बीडीआर के जवानों का गुस्सा अचानक नही भड़का। इस विद्रोह के पीछे कट्टरपंथियों की शेख हसीना सरकार को अस्थिर करने की साजिश भी हो सकती है, क्योंकि शेख हसीना को बांग्लादेश में चरमपंथ के विरोधी के रूप में देखा जाता है। वजह, 1971 में जबसे पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तथा बांग्लादेश का जन्म हुआ तब से पाकिस्तानी कट्टरपंथी इसके लिए शेख मुजीबुर्रहमान को ही दोषी मानते रहे हैं और जब उनकी सपरिवार न्रशंस हत्या हुई थी उस वक्त भी यह बात उठी थी कि यह हत्या भी पाकिस्तान के इस दुश्मन को हटाने के लिए हुई थी। शेख हसीना उसी मुजीबुर्रहमान की उत्तराधिकारी हैं और उनका सत्ता में लौटना इन कट्टरपंथियों को रास नही आ रहा है।

यह स्थिति केवल बांग्लादेश की ही नही बल्कि पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल भी कमोबेश ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं। पाकिस्तान में तो अशांति का माहौल चरम पर है। पाकिस्तान सरकार द्वारा स्वात घटी में तालिबान से समझौता वहां कट्टरपंथ का हौसला बढ़ाने
के लिए पर्याप्त है। इससे पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में भी कट्टरपंथी ताकतों का प्रभाव बढ़ रहा है। नही भूलना चाहिए कि मुंबई हमलों की साजिश भी पाकिस्तान में ही रची गई थी। श्रीलंका में तमिल छापामारों ने कोलम्बो पर हवाई हमला करके अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। वहां के जातीय संघर्ष का खासा असर तमिलनाडु पर दिखाई दे रहा है। नेपाल की स्थिति भी अच्छी नही है। वहां सत्ता में काबिज माओवादी लोकतान्त्रिक तौर-तरीकों को आत्मसात करते नजर नही आते। भूटान और मालद्वीप के हालात कुछ संतोषजनक हैं किंतु नही भूलना चाहिए कि वहां लोकतंत्र अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है।

भारत इसे पड़ोसी देशों का अपना आतंरिक मामला कहकर अपना पल्ला नही झाड़ सकता। पड़ोसी देशों में जो अशांति और असुरक्षा का माहौल है, इससे भारत की चिंता और जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। दक्षिण एशिया का प्रमुख राष्ट्र होने के साथ ही स्वयं को एक महाशक्ति के रूप में पेश करने वाले भारत की यह जिम्मेदारी बनती है कि इसके इर्द-गिर्द लोकतंत्र की बहाली के साथ शान्ति, सुरक्षा, सदभाव और स्थिरता का माहौल कायम रहे।

अब यही देखना है कि इस चुनावी माहौल में यह जिम्मेदारी कितनी गंभीरता से निभाई जाती है।

3 comments:

  1. बहुत अच्छा लेख लिखा है

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  2. प्रदीप जी:
    जो रास्ट्र स्वयं अपनी सीमायें नहीं सभालेगा, उसको क्या कोई बाहर से आ कर मदद करगा ? सोया देश है हमारा. इतिहास गवाह है की भारत ने अपनी सीमायें खोई हैं, धरम भी खोया है. कोई अचरज नहीं , ५० साल बाद इस देश की सीमायें भी बदली होंगी, तथा अपने परपोतों के नाम नहीं होंगे, जैसे होने चाहियें.

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