Sunday, March 22, 2009

रैगिंग, एक अभिशाप

हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले के मेडिकल कालेज के छात्र अमन की मौत से सारा देश सकते में है इससे संकेत मिलता है कि शिक्षण संस्थाओं में रैगिंग कितने गहरे तक पैठ बना चुकी है. कालेजों और विश्वविद्यालयों में रैगिंग का अत्यन्त भयावह रूप सामने रहा हैआमतौर पर वरिष्ठ लोगों की ओर से यह तर्क दिए जाते है कि छात्रों की आपस में अच्छी जन-पहचान के लिए यह एक परिचय-पार्टी के रूप में जरुरी हैइससे समरस शैक्षिक माहौल बनता हैयह तर्क इंग्लॅण्ड के इलीट कालेजों से आया है और वहीं से रैगिंग भी शुरू हुई हैइसके पीछे शासन करने और सताने की मानसिकता काम करती है, जिसके लिए लोकतान्त्रिक समाज में कोई जगह नही है इसीलिए यह वहां तो बंद हो गई, किंतु भारत में अभी भी चल रही हैजूनियर छात्र जब कालेज पहुँचते हैं तो पहले से ही उनपर काफी मानसिक दबाव रहता हैऐसे में यह परिचय पार्टी जूनियर-सीनियर के अन्तर को समाप्त कर उनमें बेहतर तालमेल बैठने में मददगार होती हैकिंतु धीरे-धीरे इसका स्वरूप विकृत होता चला गया और यह जघन्य कृत्यों की श्रेणी तक पहुँच गयानए छात्रों का अपमान, उत्पीडन और शोषण इसके अनिवार्य अंग बन गए हैं। पहले रैगिंग नए विद्यार्थियों के प्रवेश के कुछ दिनों तक ही चलती थी, किंतु अब यह तब तक चलती है जब तककि छात्र स्वयं सबसे ऊँची कक्षा में नही पहुँच जाता। रैगिंग की यह बीमारी हर साल तमाम छात्रों को अच्छे प्रोफेशनल कालेजों को छोड़ने पर विवश कर देती है और कई संवेदनशील छात्रों को मानसिक रूप से कुंठित और बीमार बना देती है। रैगिंग की कुंठा से बनी बीमारी न केवल व्यावसायिक कोर्स के आखरी साल तक बनी रहती है बल्कि वह आगे शिक्षक और प्राचार्य तक पैठी रहती है। सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देश एवं सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघव की सिफारिशों के बावजूद विभिन्न राज्यों में बने रैगिंग रोकने वाले कानून ठीक से लागू नही हो पा रहे हैं।

रैगिंग बढ़ने का एक कारण शिक्षण संस्थाओं में मूल्यों का ह्रास तथा कार्य संस्कृति की कमजोरी भी है। पिछले दो दशकों में व्यावसायिक संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी है। यह अच्छा कदम है किंतु इस बढोत्तरी से कुछ चिंताजनक प्रवृतियाँ भी उभरी हैं। एक तो शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है, दूसरा इनमें छात्र-शिक्षक के संबंधों में गर्माहट भी कम हुई है। अतः छात्रों को अपेक्षित मार्गदर्शन नही मिल पाता है। किशोरावस्था अत्यन्त संवेदनशील होती है। इस अवस्था में विद्यार्थी को मार्गदर्शन तथा दिशा-निर्देश की आवश्यकता होती है। इसीलिए शिक्षण-संस्थाओं में गाइडेंस कौन्सिलिंग की व्यवस्था का प्रावधान है किंतु अधिकांश संस्थाओं में या तो इन पदों पर नियुक्ति ही नही होती या फ़िर उन्हें कक्षाओं में केवल अरेंजमेंट के तौर परही भेजा जाता है। फलतः छात्रों को वह वातावरण नही मिल पता जो उनके अन्दर आत्मविश्वास पैदा करे तथा सही राह दिखाए। हॉस्टल वार्डेन की उपस्थिति तथा सजगता भी रैगिंग को विचारशील सांस्कृतिक कार्यक्रम में बदल सकती है।

रैगिंग प्रतिभा के घरेलू विकास में बड़ी बाधा बनकर उभर रही है। इसके पीछे जाति, धर्म और क्षेत्र की कुंठाएं भी काम करती हैं और यौन-कुंठाएं भी अपनी भूमिका अदा हैं। जाहिर है, शिक्षा के उदारीकरण के इस युग में रैगिंग भारतीय शैक्षिणिक संस्थाओं की छवि को दुनिया भर में बट्टा भी लगायेगी। रैगिंग के कारणों, स्वरूप तथा प्रवृति का मनोवैज्ञानिक अद्ध्ययन तथा समझ आवश्यक है। यह एक गंभीर समस्या है। उच्चतम न्यायालय के आदेशों तथा निर्देशों पर अमल तभी होगा जब प्राचार्य , अध्यापक और वार्डेन अपने कर्तव्यों का जिम्मेदारी से निर्वाह करें

कांगडा की इस त्रासदी के बाद रैगिंग में प्रताड़ना के और भी प्रकरण सामने आ सकते हैं। इससे पहले की स्थिति और बिगडे, त्वरित तथा दूरगामी उपाय करने होंगे।


2 comments:

  1. "रैगिंग बढ़ने का एक कारण शिक्षण संस्थाओं में मूल्यों का ह्रास तथा कार्य संस्कृति की कमजोरी भी है।" - यह आपने सही विश्लेषण किया. अलिएन (alien) चीज़ों को अपनाने की होड़ में लगा भारतीय अपनी संस्कृति न भूल बैठे.

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  2. बहुत सही और सटीक बात कही आपने.

    रामराम.

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